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यदि आपके पास समय की कमी नहीं है और फालतू चीजें पढऩे के शौकीन है तो मुझे झेलने के लिए तैयार हो जाइए


Tuesday 31 May, 2011

How would you say these are government bodies ?

8 Engineering colleges in the state: Government says these are in our hold, but college admins not following govt norms.
Metro reporter (Rajasthan Patrika)
Jaipur. Students of these colleges are being charged full fee like private institutions and government of Rajasthan is giving them full grant for their development. Eight engineering colleges in the state which were treated as like government bodies were not following the government norms. Salary and pension of faculties are being not given by government, but authorities still claiming that these are part of Rajasthan Government.
Enginnering colleges in Bharatpur, Ajmer, Bikaner, Banswara, Bhilwara and Jhalawar were estaiblished by Societies and registered under the Society Act 1958. Governing councils of these colleges included the Minister of Technical Education, Principal secretory of Technical Education and finance secretory. Other members are renowned industrialist and educationists. These colleges were funded by the state government every year till session 2009-10, but for this recent session government has denied to issue the grant. Decisions for appointment the faculty, dean and other academic posts are being taken by the state government. These society colleges are also using the government letter heads.
questions arise....
These colleges are being run under the self finance schemes not as government bodies. The salary and pension of the faculty and staff are disbursed from the revenues collected from the students as academic fee.
Academic fee realised from the students of these colleges is equavalent to private institutions. Concession in the fee is not given to students like as academic government colleges. This rebate is being given to a small percent of total students.
These colleges were issued grant from government till last session, but this is not the parameter of government body. Many of the society based colleges are also funded from state government.
Auditing of the accounts of colleges are not being processed by auditor general. Auditing of the grants given by government is being done by private accounting firms.
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A talk with vipin chandra sharma, Principal secretory of Technical Education
Q. Why these colleges being treated as government bodies, while they were not following the government norms ?
A. These colleges were estaiblished through societies which were held by government authorities, so this is not wrong to say them government body.
Q. But students being charged full fee as like private institutions ?
A. We have denied to give them grant from this session, and trying to make them as autonomous bodies. Hence, they have started to take full fee, still they have to pay for faculties as per aicte norms.

Saturday 16 October, 2010

प्रोटोकॉल की सीमा में बंधा मौन ‘आक्रोश’

फिल्म समीक्षा: आक्रोश

बिहार-झारखंड के ग्रामीण परिवेश में आज भी दिल्ली की सरकार के समानांतर एक और ही सरकार चलती है, इसमें सरकारी अफसर हैं, लेकिन वे सरकारी राज को मजबूत नहीं बनाते। दलित और सवर्ण परिवार के युवक-युवती के बीच पनपी प्रेम कथा में बाहुबली के साथ कंधे से कंधा मिलाए खड़े हैं सांसद, पुलिस अधीक्षक और कलक्टर समेत तमाम सरकारी अमला।
फिल्म में निर्देशक ने आक्रोश के जरिए इज्जत के नाम पर प्रेमियों की हत्या के संवेदनशील मुद्दे को तो उठाया ही है, साथ ही सही मायनों में इन इलाकों के हालतों को भी प्रदर्शित किया है। हेराफेरी, हंगामा और मालामाल वीकली जैसी सफल कॉमेडी फिल्मों की परम्परा को कायम रखने में विफल रहे प्रियदर्शन एक बार फिर अपने पुराने रंग में लौटे हैं, जिनमें विरासत और कांजीवरम जैसी फिल्मों का प्रभावी निर्देशन झलकता है। फिल्म की कहानी दिल्ली के मेडिकल कॉलेज से गायब हुए तीन छात्रों की है, जिनका दो महीने तक पता नहीं चलने पर सीबीआई को जांच दी जाती है। मेडिकल छात्रों की खोज के लिए आए सीबीआई अफसर सिद्धांत चतुर्वेदी (अक्षय खन्ना) और प्रताप (अजय देवगन) झांझर पहुंचते हैं, तो कोई जुबान खोलने को तैयार नहीं होता और वे जिससे भी बातचीत करना चाहते हैं, उसे बाहुबली और त्रिशूल सेना के गुंडे जीवित नहीं छोड़ते। अत्याचार के खिलाफ जब जनता एकजुट होती है तो उसे बाहुबली के गुंडों की आगजनी के साथ ही पुलिस के बर्बरतापूर्णलाठीचार्ज का सामना करना पड़ता है। खोजबीन में पता चलता है कि इस घटना के पीछे मेडिकल छात्र दीनू और बाहुबली ठाकुर की बेटी के बीच की प्रेमकथा है। तीनों मेडिकल छात्रों की हत्या का केस खुलता है तो बाहुबली ठाकुर, पुलिस अधीक्षक और सांसद कठघरे में होते हैं, जिन्हें सीबीआई अफसर सिद्धांत प्रोटोकॉल की सीमा में रहते हुए शूट करवा देता है।

पूरी फिल्म में अजय देवगन छाए रहे हैं और उनका अभिनय भी काबिलेतारीफ है। अक्षय खन्ना का अभिनय सहज है, बिपाशा मध्यांतर बाद ही फिल्म में दिखी हैं और उनका रोल छोटा है। परेश रावल दर्शकों की तारीफ बटोरने में कामयाब रहे हैं। प्रियदर्शन की कॉमेडी टीम यहां भी शामिल है, जिसने कॉमेडी से इतर यहां गंभीर रोल अदा किए हैं।

फिल्म में प्रियर्दशन का निर्देशन और अरुण कुमार की एडिटिंग उम्दा है। गीत संगीत बहुत रोचक नहीं बन पड़े हैं, आइटम सॉन्ग पसंद किया जा सकता है। कुलमिलाकर इसे प्रियदर्शन की एक बेहतर वापसी माना जा सकता है।

Wednesday 6 October, 2010

फिल्म बनी है, सिनेमाघरों में लगी है, इसलिए देखना मजबूरी है

आप कह सकते हैं कि यह तो आपके मर्जी पर मुनहसर है कि आप फिल्म देखें या नहीं, लेकिन खबरनवीस होते हुए एक आदत यह भी लगी हुई है कि हर सप्ताह जैसे ही नई फिल्म का नाम सुना, कि चल दिए थिएटर की ओर। अंग्रेजीदां संस्कृति के इन थिएटर्स में घुसने के ही १६० से २०० रुपए तक लग जाते हैं, ऐसे में यदि फिल्म का लब्बोलुआब ही समझ न आए तो निर्माता-निर्देशकों को कोसना वाजिब है। अपनी महिला मित्र के संग गलफांस डाले हमारे पड़ौसी सीट पर बैठे साहबान ने एक चौथाई मूवी देखकर ही घोषणा कर दी थी कि फिल्म बकवास है। मेरी पूर्वाग्रह से ग्रस्त होकर धारणा बनाने की आदत नहीं है, लेकिन कोई क्या करे, जब फिल्म की कहानी ही समझ से परे हो। इसी हफ्ते आई अंजाना-अंजानी देखने की तमन्ना काफी दिनों से थी, इसकी एक वजह तो यह थी कि नए आए एक्टर्स में रणबीर कपूर कदरन मुझे अधिक पसंद है और दूसरे राजनीति के बाद मैं उसकी एक्टिंग का भी प्रशंसक हो गया हूं। थिएटर में २० मिनट गुजारने पर ही यह खामख्याली हवा हो गई कि फिल्म की कहानी में आगे कुछ ट्विस्ट आएगा।
फिल्म आत्महत्या के बोझिल प्रयास से शुरू होती है और कोई दर्जनभर नाकाम प्रयासों के बाद उसी पर आकर खत्म होती है। फिल्म में हीरो रणबीर कपूर, जिसने एक संघर्षरत बिजनेसमैन आकाश का किरदार निभाया है और कियारा बनी प्रियंका अपने मंगेतर जाएद खान के धोखे से आजिज आ आत्महत्या करना चाहती है। शुरुआती सीन अच्छा बन पड़ा है, लेकिन इसके बाद नए-नए तरीकों से आत्महत्या करने के असफल प्रयास उबाऊ लगते हैं। इसके बाद दोनों एक-दूसरे की विश पूरी करने की प्रक्रिया में अगले बीस दिन खुशी से बिताने की ठानते हैं। कई मोड़ पार करने के बाद आकाश को कियारा से प्यार हो जाता है, लेकिन कियारा के दिल में अभी भी अपने मंगेतर जाएद खान के लिए लगाव है। हर हिन्दी मूवी की तर्ज पर कियारा बीस दिन बाद आत्महत्या वाले न्यूयॉर्क के ब्रिज पर मिलती है। पूरी फिल्म में बोरियत महसूस होती है। एक बार फिर लगा है कि अभी रणबीर को अभिनय से प्रभावित होने वाले दर्शकों को प्रशंसक बनाने में समय लगेगा। राजनीति में उनकी जो परिपक्वता झलकी थी वो यहां सिरे से गायब है और केवल ऐसे दर्शकों को पंसद आ सकते हैं जिनकी उम्र १७ से २४ के बीच है और जो स्कूल या कॉलेज से बाकायदा हर शुक्रवार को बंक मारकर पहुंचे होते हैं और साथ में हर तीन माह में कपड़ों की तरह बदल जाने वाली या वाला मित्र होता है। प्रियंका अपने काम में अच्छी रही हैं। जाएद खान से अभिनय की उम्मीद करना बेमानी है। गीतों में एक ही नगमा गुनगुनाने लायक है, तुझे भुला दिया.. जिसे मोहित चौहान और श्रुति पाठक ने मस्ती भरे लहजे में सूफियाना अंदाज में गाया है। कुलमिलाकर फिल्म को देखने में १८० रुपए खर्चना कतई समझदारी नहीं है और इसे एक चलताऊ फिल्म कहा जा सकता है, जिसमें सिद्धार्थ आनंद का निर्देशन काबिलेतारीफ नहीं कहा जा सकता।

Sunday 27 June, 2010

हद है जनाब...

वे झुंझलाए हुए थे और चेहरे पर चिंता की कई लकीरें उभरी हुई थीं। सुबह से परेशान थे, पुलिसवालों को मात करती मोटी तोंद पर भी शायद माथे की शिकन का असर दिखने लगा था, सो वो भी अब सिकुडऩे लगी थी। आखिर क्या हो गया जो एक छोटी सी फिल्म देख ली, पहले भी तो मैडम के राज में बहुत सारी फिल्में देखी हैं और यूं ही नहीं जनाब, एक से एक मजे ले लेकर। हमने शहर के सबसे उम्दा और महंगे सिनेमाघर में फिल्म देखी, पिकनिक मनाई, पर पहले तो इतना हल्ला कभी नहीं हुआ। नेताजी के खफा चेहरे को देखकर कोई उनके नजदीक नहीं आना चाहता था, लेकिन एक छुटभैये कार्यकर्ता झिझकते सकुचाते सरककर करीब पहुंचे और कान में फुसफुसाकर बोले, सर सब ‘राज’ की बात है। अगर हमारा ‘राज’ होता तो एक ‘राजनीति’ के देख लेने से कौंनसा इतना हंगामा हो जाता। फिर चोरी-छुपे तो हिन्दुस्तान की ८० परसेंट जनता ऐसे ही हर छोटी-बड़ी फिल्म को देखती है, पिक्चर देखने के लिए पर्दे से तीन दिन पहले ही डीवीडी घर पहुंच जाती है, यूं तो किसी पर मुकदमा नहीं होता।
चार्ज क्या लगाया है ? पायरेटेड डीवीडी से पिक्चर देखी, नियमों का उल्लघंन किया, जानते-बूझते भी एक्ट का ध्यान नहीं रखा, इसलिए कम से कम तीन साल की सजा और दो लाख का जुर्माना। एक्ट का ध्यान नहीं रखा, अरे ऐसे क्या सारे एक्ट जुबानी याद रखें, यूं तो अदालत हर किसी को हर तरह का कानून सिखा देगी, फिर क्या सबको एलएलबी की डिग्री भी जारी करेगी। सर, वैसे एक बात कहें, कार्यकर्ता ने मौके की नजाकत समझी और अपनी वैल्यू बढ़ाने के लिए आइडिया सरका ही दिया, ये भी अगले चुनावी एजेंडे के लिए सही मुद्दा है। आखिर हर किसी को कानून की जानकारी तो होनी ही चाहिए। जब नीलेकनी सबके लिए यूनिक आइडेंटिटी का प्रचार कर सकते हैं और सरकार में बात चल भी रही है। तो हम भी इसे अपनी पार्टी का चुनावी मुद्दा बना सकते हैं कि कानून की जानकारी तो सबको रखनी ही पड़ेगी। एलएलबी डिग्री को अनिवार्य करवा दिया जाए। हम कहेंगे, जब सबको कानून पता होगा तो कोई अपराध ही नहीं करेगा और हमारा देश विश्व का एकमात्र अपराधमुक्त देश बन जाएगा।
उनकी गर्दन हिली, लेकिन अभी चिंता कुछ और थी, बोले अगले चुनाव तो अभी दूर हैं, पहले इसका हल तो सोचो, उपाय क्या है, वो तो एक ही दिखता है, फुसफुसाहट कुछ और धीमी हो गई। हम तो राज्यसभा के चुनाव करवा रहे हैं, हम कौंनसे घर-ग्रहस्थी का सामान यहां लेकर डटे हैं, यहां तो सब होटल वालों की माया से मौज हो रही है। मतलब समझकर, नेताजी ने सशंक भाव से नजरें फेरकर कार्यकर्ता को देखा, होटल वालों पर मंढ़ दें, कि उन्होंने ही नकली सीडी मुहैया कराई थी। अब सर, खी..खी.. करते कार्यकर्ता ने मुंह पर हाथ रखकर हंसी रोकने का असफल प्रयत्न करते हुए कहा, अब इस चुनाव में इतनी सी ‘राजनीति’ तो आपको भी करनी पड़ेगी। लेकिन यार, आइडिया तो हमारा ही था, इसमें बेचारे होटल वाले की क्या गलती ? सर, गलती के पीछे जाता कौंन है, वो तो जांच का मुद्दा है। नेताजी संतुष्ट से दिखे तो कार्यकर्ता को अगले चुनाव में अपना टिकट पक्का लगने लगा।
अब नेताजी की सांस वापस लौटने लगी है, तोंद भी राहत की मुद्रा में आ गई है। लेकिन, वे अब चोर नजरों से उसे ढूंढऩे में लगे हैं, जिन्होंने ये आइडिया सरकाया था, कि टाइम पास के लिए तो ‘राजनीति’ देखना सबसे अच्छी बात है...

Monday 17 May, 2010

हमको कुटिया बृज में ही बनानी

आज लम्बे अरसे बाद एक बार फिर से ब्लॉग की याद आई है और हालिया यात्रा भी कुछ ऐसी रही है कि वृतांत को डिजिटल कागज पर उतारने की प्रबल इच्छा हो रही है।
वाकया कुछ यूं हुआ कि अभी जब मैं बोरियतभरे अंदाज में एक बेमजा जिम्मेदारी की तरह अपनी एमजेएमसी फाइनल की परीक्षाएं दे रहा था तो उदयपुर से मेरे दोस्त नीरज अग्रवाल का फोन आया कि यार क्यों न गोवर्धन पर्वत की परिक्रमा के लिए चला जाए। मैं बृजक्षेत्र का निवासी होते हुए भी अभी तक गोवर्धन की परिक्रमा केवल एक बार कर पाया हूं। इसलिए इस बार दिल किया तो परिक्रमा की प्लानिंग बना ली। इस यात्रा में मेरे एक और मित्र शरीक हुए विक्रम सिंह, जिनकी हालिया फोन पर बनी गर्लफ्रेंड, जो कोटा में रहती थी और जिसे वे केवल फोन पर चार महीने की बातचीत में इतनी गहराई तक चाहने लगे थे कि बात शादी तक पहुंचने की नौबत आ गई थी, से मिलाने के लिए मैं कोटा तक साथ गया था। कोटा में दो प्यार करने वाले लोगों को मिलाकर मुझे खुशी हुई थी, शायद इसका एक कारण यह भी रहा हो कि मुझे भी कभी किसी से प्यार हुआ था, है भी, लेकिन व्यक्त करने की हिम्मत अभी तक नहीं जुटा पा रहा हूं। मैं सोचता हूं कि प्यार तो बस समझने की चीज होती है, जो मैं शायद उसे समझा नहीं पा रहा। बॉस ने कोटा के लिए बड़ी मुश्किल से दो दिन की छुट्टी दी थी और अब फिर से छुट्टी के नाम पर वे खासे नाराज हो गए।
खैर, शाम ४ बजे मैं और नीरज, जो उदयपुर से सुबह सवेरे जयपुर पहुंच गया था और प्रोग्राम बनने पर हम दोनों सुबह ९.३० के शो में उसी दिन रिलीज हुई हॉलीवुड मूवी आयरनमैन-२ भी देखने चले गए थे, गांधीनगर रेलवे स्टेशन पहुंचे, क्योंकि गुर्जरों की मर्जी के आगे बसें तो चल पाने में बेबस थीं। स्टेशन पर टिकट खिड़की पर करीब पचासेक लोगों की लम्बी कतार देखकर पसीने छूट गए। नीरज शुरू से ही जुगाड़ू प्रवृत्ति का रहा है और वह टिकट के जुगाड़ में था, लेकिन भीड़ के आगे वह बेबस रहा, तो टिकट लेने का बीड़ा मैंने उठाया। स्टेशन अधीक्षक से मिलकर अंदर की खिड़की से टिकट जुगाड़ किए। ट्रेन आई और नीरज की हड़बड़ी में जनरल का टिकट होते हुए भी हम स्लीपर क्लास में घुस गए। कोई आठ-दस मिनट में ही टीटीई महोदय ने टिकट देखा और जनरल में जाने की हिदायत दे डाली। जनरल डिब्बे की भीड़ को हम ट्रेन में चढऩे से पहले देख चुके थे, इसलिए हिम्मत न हुई कि स्लीपर को छोड़ पाते। आखिर स्लीपर के मोहपाश में बंधकर मैंने जेब से टीटीई साहब को ३०५ रुपए देकर जान छुड़ाई।
नीचे की बर्थ पर एक सुंदर लड़की भी सवार थी, मैं और नीरज विश्वामित्र के खानदान से तो हैं नहीं, लेकिन मैं थोड़ा शर्मीला हूं और नीरज चालू पुर्जा, इसलिए वह शुरू हो गया था। मेरी एक सप्ताह पहले की कोटा यात्रा में भी ऐसा ही हुआ था कि मैं और विक्रम केवल बैठ सकने वाले डिब्बे में सवार थे, डिब्बा कमोबेश ३० प्रतिशत खाली था, इसलिए सामने की सीट पर केवल एक लड़की सवार थी, विक्रम का कहना था कि उस सुंदर लड़की को उसने पहले भी यूनिवर्सिटी में देखा था, जबकि मेरी नजर में ऐसी कोई वाकफियत नहीं थी। अब दुर्गापुरा रेलवे स्टेशन से सवार हुए तो दोपहर थी, हमें पानी बोतल खरीदना याद न रहा और रास्ते में कोई पानी बोतल बेचने वाला नहीं आया तो गला सूखने लगा। ट्रेन की रवानगी को दो घंटे हो गए और न कोई ठीक सा स्टेशन आया कि पानी खरीद लेते। इधर हम दोनों प्यास से बेहाल थे और पानी न मिलने का रोना भी रो रहे थे, ऐसे में सामने वाली लड़की अपनी बोतल में से हर पांच मिनट में दो घूंट पानी पीती और ढक्कन लगाकर हमारे सामने बोतल को हाथों में घुमाने लगती। मैंने फुसफुसाकर विक्रम से कहा कि ये लड़की हमें पानी की बोतल देना चाह रही है, लेकिन मेरी नजर में, जिससे विक्रम भी सहमत था, लड़की से पानी की बोतल लेने से हमारी इज्जत कम हो जाएगी। इस चक्कर में कोई एक घंटे और प्यास से व्याकुल सूखे होठों पर जीभ की कोर फिरानी पड़ी। सवाईमाधोपुर स्टेशन पर पानी मिला और हमने प्यास बुझाई।
पूरा वाकया सुनते ही नीरज जोर-जोर से हंसने लगा, मैंने पूछा, यार मैंने कोई जोक थोड़े ही सुनाया है। नीरज बोला यार, तुम दोनों वास्तव में ही ठेठ जाट हो। कैसे, बोला यार, मैं होता तो लड़की से पानी मांग लेता और इसी बहाने उससे दोस्ती भी हो जाती। वो लड़की तो आगे से ही तुम दोनों को पानी पिलाना चाह रही थी, लेकिन तुमने मौके का फायदा नहीं उठाया। नीरज ने नीचे की बर्थ पर बैठी लड़की पर डोरे डालने शुरू किए, मैं भी साथ था, लेकिन सफलता हासिल नहीं हुई।
विक्रम को आगे के स्टेशन नदबई से सवार होना था। फिक्स शेड्यूल के बावजूद विक्रम गांव से नदबई तक वाहन न मिलने की वजह से लेट हो गया। ट्रेन के नदबई पर रुकने और दो मिनट बाद रवाना होने तक विक्रम की खैर खबर न थी इसलिए हम दोनों का मूड खराब होने लगा था। फोन लगाया तो पता चला कि हमारे फोनेटिक लवर ट्रेन के अंतिम डिब्बे में घुस पाने में कामयाब हो गए थे। भरतपुर पहुंचे तो शाम के ७.३० बज चुके थे और हमें गोवर्धन जाने वाली किसी बस की तलाश थी, किसी ने पूछने पर दूरी बताई ३२ किमी। एक बस आई तो वह ठसाठस भरी हुई थी और उसमें हम तीनों का सवार हो पाना मुश्किल था। अगली बस की प्रतीक्षा शुरू हुई, लेकिन वह भी नीचे से भरी हुई थी फिर निर्णय लिया गया कि ऊपर छत पर चढ़कर यात्रा की जाए, नुकसान केवल एक ही था, बस की छत पर किसी पेड़ की डालियों के सिर से टकराने या बबूल के कांंटे लग जाने का, क्योंकि बृज क्षेत्र में बबूलों की मात्रा भरपूर है। लेकिन हमारी खामख्याली तब हवा हो गई, जब बस की छत पर भी यात्रियों का एक रैला सवार हो गया। कुलमिलाकर ४४ सीट की उस बस में कोई ६५ व्यक्ति नीचे और चालीसेक छत के ऊपर थे। बस के ऊपर शाम ८ बजे की हल्की ठंडक वाली बयार हमें सुकून पहुंचा रही थी।
गोवर्धन पहुंचते ही परिक्रमा की धुन सवार हुई, लेकिन इससे पहले किसी ठहरने के स्थल की तलाश थी। किसी अच्छे होटल या गेस्ट हाउस की कल्पना करना यहां बेमानी है, इसलिए हमने एक धर्मशाला में कमरा लिया और खाना खाकर गिरिराज यानी गोवर्धन पर्वत की परिक्रमा के लिए चल पड़े। पांच बार प्रभु को पिट्टा प्रणाम (जमीन पर लेटकर) करके परिक्रमा की शुरुआत की। दानघाटी मंदिर से शुरू की हुई परिक्रमा में भीड़ इतनी थी कि यदि व्यक्ति दो कदम भी पीछे रह जाए तो उसका अपने साथ आए दोस्तों या परिजनों से बिछुडऩा अवश्यंभावी है। करीब दस मिनट के रास्ते के बाद एक जगह पर प्रभु की एक नाटिका का मंचन हो रहा था, ठेठ बृज भाषा में। करीब तीस मिनट तक इस मंचन को देखने में हम इतने तल्लीन हुए, जितना शायद मैं तो अब तक न किसी अंग्रेजीदा हॉलीवुड मूवी में हो पाया था और न ही किसी बॉलीवुड मूवी के मोहपाश में बंध पाया था, फिर सास-बहू के झगड़ों वाले डेलीसोप्स की तो बिसात ही क्या थी। प्रभु श्रीराम और उनके भक्त गोपाल के इस अभिनय को देखने के बाद आगे चले तो मुझे प्यास लगी। मुझे यह पहले ही बता देना चाहिए था कि परिक्रमा के बीच-बीच में रासलीला, श्रीमद्भागवत कथा वाचन और धर्मार्थ प्याऊ लगभग हर आधे किमी की दूरी पर दिखाई दे जाते हैं। मैं एक प्याऊ पर पहुंचा, नीरज को आवाज दी, मात्र २० सैकंड के वक्फे में ही विक्रम आगे निकल गया। अपने दोस्त के बिछुडऩे पर मन कुछ खट्टा हुआ और परिक्रमा का उत्साह भी ठंडा हुआ, लेकिन आगे बढ़ते रहे। विक्रम का मोबाइल काम नहीं कर रहा था, बाद में नेटवर्क मिलने पर करीब दो घंटे बाद हम फिर मिल गए। रास्ते में साक्षी गोपाल मंदिर, पूंछरी का लौठा, जतीपुरा आकर्षण का केन्द्र रहे, जहां पर भक्तों का इतना अच्छा उत्साह शायद ही मैंने पहले कभी देखा हो, इनमें सर्वाधिक संख्या करीब २०० वर्गकिमी में रहने वाले ग्रामीणों की थी।
ऐसा नहीं है कि शहरी लोगों की वहां उपस्थिति न हो, बल्कि करीब ३० प्रतिशत संख्या शहरी लोगों की थी, जिनमें करीब ५ प्रतिशत रिक्शा करके परिक्रमा कर रहे थे, लेकिन विक्रम के शब्दों में वे ग्लानि महसूस करते हुए परिक्रमा दे रहे थे, क्योंकि नंगे पैर करीब २१ किमी पैदल चल पाना उनके वश से बाहर की बात थी। करीब ८ किमी तक तो मैं आराम से चलता रहा, फिर सड़क की गिट्टियां पैरों में चुभने लगी थीं, नीरज भी यही शिकायत कर रहा था। परिक्रमा को दो हिस्सों में बांटा हुआ है, जिनमें चार कोस की परिक्रमा मैंने जैसे-तैसे पूरी कर ली थी। इसके बाद तीन कोस की अन्य परिक्रमा, जिसमें राधाकुंड, हरगोकुल जैसे स्थान आते हैं, मेरे लिए कुछ भारी पड़ गए थे। खैर, हम नंगे पैर चलते रहे और परिक्रमा भी लगभग पूरी होने को थी। रात्रि दस बजे शुरू हुई हमारी परिक्रमा सुबह ५.३० बजे पूरी हुई। हालांकि इस दौरान भक्तों का उत्साह गजब का था। राधे-राधे, श्याम मिलादे, गिरिराज महाराज की जय, बंशीवाले की जय जैसे नारे भी इस पूरी परिक्रमा में गूंजते रहे। मैं शायद कोई अंदाजा लगा पाऊं तो करीब ५० से ६० हजार या फिर एक लाख तक भी लोग रोजाना गोवर्धन परिक्रमा दे रहे थे। मानसी गंगा तक पहुंचते-पहुंचते हमारी हालत खस्ता हो गई थी और पैरों में एक कदम चलने लायक भी शक्ति नहीं बची थी। इसके तुरंत बाद हम धर्मशाला के अपने कमरे में सो गए तो करीब १२ बजे नींद खुली। हमारी प्लानिंग तो यह थी कि इसके बाद वृंदावन, गोकुल, बरसाना आदि क्षेत्रों में भी भ्रमण किया जाए, लेकिन पैर जवाब दे चुके थे और थकान भी इतनी थी कि आगे चलने की हिम्मत नहीं हुई।
वापसी में भरतपुर के लिए एक वैन किराए पर ली। नीरज को अपने मौसाजी के यहां नगर पहुंचना था, मैं और विक्रम भी अपने-अपने गांवों के लिए रवाना हुए। हम दोनों एक ही बस में बैठकर वापस पहुंच गए। पूरी यात्रा काफी अच्छी रही, हमारा उत्साह भी अच्छा था, प्रभु भक्ति की भावना और अटूट श्रद्धा हमारे साथ रही, लेकिन फिर भी बृजक्षेत्र की इस यात्रा को हम पूरा नहीं कर पाए हैं। मौका मिला तो शायद, फिर से अगले कुछ माह, या एक दो वर्ष में बृजक्षेत्र जाना चाहूंगा। अंत में, यही कहना चाहूंगा कि मैं श्रीकृष्ण और राधिका रानी का भक्त हो गया हूं और अपनी भावना को गौरवकृष्ण गोस्वामी के इन शब्दों में बयां करना चाहूंगा, क्योंकि मेरे शब्दकोश में इससे अच्छे शब्द मिलना मुश्किल है।
नाम महाधन है अपनों, नहीं दूसरी सम्पत्ति और कमानी
छोड़ अटारी अटा जग के, हमको कुटिया बृज में ही बनानी
टुक मिलें रसिकों के सदा और पीवन को यमुना जल पानी
हमें औरन की परवाह नहीं, अपनी ठकुरानी श्री राधिका रानी

Saturday 30 January, 2010

ये संस्कृति के पतन का साक्षी है

हर कोई खुद को अपने से अगली जमात में बिठाए जाने पर खुशी महसूस करता है, उसे ये खुशफहमी रहती है कि वो आगे की जमात में मौजूद लोगों के समकक्ष हो गया है और उसका वजूद भी कुछ हाई-फाई हो गया है। एक किताब लिखकर कोई कितना बड़ा लेखक या विद्वान हो सकता है, जवाब चाहिए तो सबसे पहले किसी भी शहर में होने वाले लिट्रेचर फेस्टिवल को आजमाएं। हालिया जयपुर में हुए पांच दिन लिट्रेचर फेस्टिवल में चार दिन जाने का मौका मिला, तो एक नई संस्कृति से रूबरू हुआ। साहित्य के इस उत्सव में ताजा जवां हुए कई लेखक इस बात से प्रफुल्लित थे कि वो अंग्रेजी उपन्यासकारों की गिनती में आ गए हैं और पूरा मीडिया उन्हें कवरेज दे रहा है। ये अंग्रेजी में लिखने वाले साहित्यकार भी अंग्रेजों के साथ बैठकर खुद को अगली जमात में गिनकर गर्व से सिर उठाए बोल रहे थे। मुझे हैरत तब हुई, जब एक लेखक महोदय, जिनका पहला उपन्यास अभी प्रकाशित ही हुआ है और बमुश्किल सौ प्रतियां बिकी होंगी, बड़े जोश के साथ 'कैसे बनें अच्छे आलोचकÓ पर व्याख्यान दे रहे थे। सुनने के लिए थे करीब दो दर्जन मीडियाकर्मी और पचासेक श्रोता। यूं हमारी मातृभाषा में कोई दर्जनभर से अधिक कृतियां लिख ले तो भी शायद ही उसे बोलने के लिए कोई मंच मिले। लेकिन अंग्रेजीदां के साहित्य महोत्सवों की बात ही कुछ और है।यूं तो यहां संस्कृति की बात करना ही बेमानी है, फिर भी आपको यहां लेखकों की मर्यादाएं देखनी हों तो दिखेंगे मंच पर शराब के पैग भरे लेखक, सिगरेट के कश लगाते हुए धुएं के छल्ले उड़ाती नवलेखिकाएं और कवियित्रीयां और अगर किसी कवियित्री के हाथ में आपको बियर का गिलास दिखे तो भी ताज्जुब की बात नहीं। इन्हीं लेखकों और लेखिकाओं के पहनावे पर आपकी नजर जाए तो आपको समझ आएगा कि बॉलीवुड और हॉलीवुड के सारे नए फैशन स्टाइल यहीं से प्रेरित होकर तैयार होते हैं। पचास वर्ष की कोई लेखिका अद्धनग्न अवस्था में स्कर्ट पहने आपके साथ भोजन की प्लेट पकड़ी दिखे तो आप कहेंगे भला यह भी फैशन की कोई उम्र है, लेकिन सही मायनों में फैशन इसी उम्र में इनपर फबता है (जैसी कि इनकी खुद की सोच है।) साहित्य महोत्सव की शाम कुछ और भी सुहानी हो जाती है, जब एक अंग्रेजी महिला बियर काउंटर से बोतल पाने के लिए बैरे को शुद्ध हिन्दी में 'भैयाजी एक बियर दे दोÓ कहते नहीं थकती, एक साहित्यकार खुले दिल से अपने फिल्मी दोस्त के गाल को चूमते हैं और स्टेज के नीचे अद्धबेहोशी में एक अंग्रेजी महिला अपने वस्त्रों की सुध-बुध खो बैठती है।

Friday 13 November, 2009

ये प्रेम कहानी का सुखद अंत है

आज मैं जब सिनेमाहॉल पहुंचा तो हिसाब से मुझे इमरान खान और सोहा अली की तुम मिले मूवी देखनी चाहिए थी। लेकिन इस बार हालात कुछ जुदा थे। नास्त्रेदमस की भविष्यवाणी के भय और प्रलय के लम्बे-चौड़े पोस्टर देखकर मेरी पिछले तीन रोज से ही इच्छा हो रही थी कि इस बार बॉलीवुड की बजाय हॉलीवुड में किस्मत आजमाई जाए कि कितना मजा आता है। यूं मेरे लिए हॉलीवुड फिल्म देखना कोई नई बात नहीं है, लेकिन पिछले तीन माह के अरसे में मैंने कोई हॉलीवुड फिल्म नहीं देखी थी या शायद कोई फिल्म ऐसी नहीं आई थी, जिसके सदके मैं सिनेमाहॉल में बॉलीवुड की बजाय हॉलीवुड फिल्म की अंग्रेजीदा टिकट खिड़की की ओर मुड़ता। फिर एक बात और, कि हालिया जब इमरान खान और शरमाती हुई सोहा अली होटल रामाडा में जयपुर के मीडिया से रूबरू हो रही थीं तो एक मौका हमें भी मिला और हमने भी उनकी एक झलक देख ली, इसलिए आधी उत्सुकता वहीं ढेर हो गई और इस बार हमने हिम्मत दिखाकर पलय-२०१२ का टिकट खरीद लिया। सहीं कहें जनाब, हिंसा के ढेर सारे सीन और धरती में उथल-पुथल की ये घटनाएं हमें सहज कम बनावटी अधिक दिखीं, दूसरे शब्दों में प्रलय का ये नजारा इमेजिनेशन की हदों को पार करने वाला था। वैसे हमारी हिन्दी फिल्मों में इस तरह के दृश्यों की कभी कल्पना भी नहीं की जाती और सैट पर इतना खर्चा करने की बात सुनकर शायद डायरेक्टर-प्रोड्यूसर फिल्म बनाने का इरादा ही मुल्तवी कर दें। इसलिए फिल्म को युवाओं के एक बड़े वर्ग ने सराहा और कहानी की रफ्तार की प्रशंसा की। मैं भी फिल्म में एक के बाद एक बदलते सीन्स और कॉमेडी को देखकर सुखद आश्चर्य महसूस कर रहा था। लेकिन फिर भी ये फिल्म मुझे इतनी अच्छी नहीं लगी, जितनी कि पिछले हफ्ते राजकुमार संतोषी की अजब प्रेम की गजब कहानी लगी थी। इस फिल्म को देखकर पहली नजर में ही कहा जा सकता है कि राजकुमार संतोषी की दर्शकों पर गहरी पकड़ है और वे यह भी जानते हैं कि फिल्म देखने के लिए मल्टीप्लेक्स में केवल ११वीं क्लास से लेकर यूजी फाइनल ईयर के स्टूडेंट ही जाते हैं, जिनके साथ यदि उनकी गर्लफ्रेंड होती है तो वे जरूर पिछली कतार में कोने की सीट कबाड़ते हैं और ऐसे मनचले किशोर युवाओं की संख्या अब कमतर विकसित शहरों में भी बढ़ रही है। निर्जीव पात्र के जरिए पत्रकार को सुनाते हुए कहानी की शुरुआत ही ऐसे हसोड़ सीन से होती है, जहां पांच युवाओं के हैप्पी क्लब का प्रेसिडेंट बिना ब्रेक वाली साइकिल पर सवार है। जो कि एक डाकू को पकड़वाने में सहायक बनता है। प्रेसिडेंट के इस किरदार को रणबीर कपूर ने बड़ी शिद्दत से निभाया है और यह सीधे युवाओं के दिल में उतरता है। कैटरीना कैफ की एंट्री बिल्कुल नेगेटिव तरीके से होती है, जो हैप्पी क्लब के नेक कार्य करने के इरादों से इस कदर प्रभावित होती है कि रणबीर से दोस्ती करना मंजूर कर लेती है। एकतरफा प्यार में डूबे रणबीर के लिए यह बात जन्नत की एक झलक पा लेने से कम नहीं होती। ख्वाबों में डूबा वह हर वो काम करने की कोशिश करता है जो कैटरीना पसंद करे। लिहाजा एक महीने तक शेफ की नौकरी करने पर भी उसे गुरेज नहीं होता। कहानी में ट्विस्ट तब पैदा होता है जब कैटरीना बगैर कुछ बताए गोवा निकल जाती है। यहां सड़क पर पैदा हुई अनाथ कैटरीना को उसके पालने वाले माता-पिता अपने निहित स्वार्थों की पूर्ति के लिए एक अमीर गोवानी के हवाले कर देना चाहते हैं जो उसे अपने साथ शादी नहीं करने पर उसके साथ जबरजिना करने के अपने धृष्ट और घृणित इरादे भी जता देता है। प्यार में नो डिमांड नो कम्प्लेंट का उसूल रखने वाले रणबीर और उसकी मित्र मंडली के सखा ऐन वक्त पर कैटरीना को वहां से सुरक्षित निकाल लाते हैं। एक प्यार करने वाले असली प्रेमी और दोस्त की असली परख यहीं होती है कि वह सबकुछ जानते-बूझते कि कैटरीना उससे प्यार नहीं करती, बल्कि पहले से ही किसी और को चाहती है, फिर भी रिस्क लेकर अपने घर में रखता है। कई रोचक मोड़ पार करने के बाद आखिर में कैटरीना को रणबीर के प्रति अपने प्यार का अहसास होता है।एक अहम बात मैं कहना चाहूंगा कि कैटरीना से एकतरफा प्यार करने वाले रणबीर ने एकबार भी अपनी ओर से प्यार का इजहार ही नहीं किया या फिर हिम्मत ही नहीं हुई। कुछ भी कहेंं, लेकिन एकतरफा प्यार ने आखिर रंग दिखाया और ऐन शादी के मौके पर कैटरीना ने अपने प्रेमी का दामन छोड़ रणबीर को अपना जीवनसाथी कबूल किया। शायद ये असली प्यार का ही असर है। मैं फिल्म की गजब कहानी, हल्के एक्शन, अच्छी कॉमेडी, बेहतर म्यूजिक के बदले इसे पांच में से साढ़े तीन स्टार देना पसंद करूंगा।